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navratri pooja vidhi-katyayani-नवदुर्गाओं के छठवें रूप माँ कात्यायनी की पूजा विधि


दुर्गा के छठवें रूप माँ कात्यायनी की पूजा विधि
File:Katyayani Sanghasri 2010 Arnab Dutta.JPG - Wikimedia Commons
दुर्गापूजा के छठवें दिन मां के इस स्वरूप की उपासना की जाती है। उस दिन साधक का मन ‘आज्ञा' चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक मां कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है। इनका स्वरूप अत्यन्त ही भव्य और दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएं हैं। माताजी का दाहिनी तरफ के दो हाथों में से एक हाथ अभयमुद्रा में है तथा दूसरा वरमुद्रा में है। बायीं तरफ के एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कमल-पुष्प सुशेभित है। इनका वाहन भी सिंह है।

मां कात्यायनी की पूजा विधि विधान

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।
जो उपासक कुण्डलिनी जाग्रत करने की इच्छा से देवी अाराधना में समर्पित हैं, उन्हें दुर्गा पूजा के छठे दिन माँ कात्यायनी जी की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना  जरूर करनी चाहिए और फिर मन को आज्ञा चक्र में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेकर साधना में बैठना चाहिए। माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ, कर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इस दिन सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विराजमान हैं। इनकी पूजा के पश्चात ही देवी कात्यायनी जी की पूजा की जाती है। पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र वे  ध्यान किया जाता है
परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्त को सहज भाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं। मां कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होे जाती हैै। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है। उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मान्तर के पापों को विनष्ट करने के लिये मां की उपासना से अधिक सुगम और सरल मार्ग दूसरा नहीं है। इनका उपासक निरन्तर इनके सान्निध्य में रहकर परमपद का अधिकारी बन जाता हैै। अतः हमें सर्वतोभावेन मां के शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिये तत्पर होना चाहिये।

कात्यायनी नाम पड़ने की कथा  

मां दुर्गा के छठवें रूप का नाम कात्यायनी है। इनका कात्यायनी नाम इस प्रकार पड़ा।- कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे। इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी कि मां भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। और फिर मां भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली थी।
कुछ काल पश्चात् महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बढ़ गया तब भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिये एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण से यह कात्यायनी कहलायीं।
ऐसी भी कथा मिलती है कि ये महर्षि कात्यायन के वहां पुत्रीरूपसे उत्पन्न भी हुईं थीं। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी को तीन दिन- इन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था।
       मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पतिरूप में पाने के लिये ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालिन्दी-यमुना के तटपर की थी। ये ब्रजमंडल अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
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