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Story of Shrinathji in Hindi

श्रीनाथजी का ऐसे हुआ नाथद्वारा आगमन

सुमित सारस्वत @hindihaat
        भारत के मुगलकालीन शासक बाबर से लेकर औरंगजेब तक का इतिहास पुष्टि संप्रदाय के इतिहास के सामानान्तर यात्रा करता रहा। सम्राट अकबर ने पुष्टि संप्रदाय की भावनाओं को स्वीकार किया था। गुसाईं श्री विट्ठलनाथजी के समय सम्राट की बेगम बीबी ताज श्रीनाथजी की परम भक्त थी। तानसेन, बीरबल और टोडरमल तक भक्ति मार्ग के उपासक रहे थे। इसी काल में कई मुसलमान रसखान, मीर अहमद इत्यादि ब्रज साहित्य और श्रीकृष्ण के भक्त रहे हैं। उस दौर में हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़ने का कठोर आदेश कभी भी कर दिया जाता था। उसकी आज्ञा की आनुपालना करने वाले दुष्ट अनुचर भी हिन्दुओं के सेव्य विग्रहों को खण्डित करने लगे। मूर्तिपूजा के विरोध में इस शासक की वक्र दृष्टि ब्रज में विराजमान श्रीगोवर्धनगिरि पर स्थित श्रीनाथजी पर भी पडी।

श्रीनाथजी का प्राकट्य

        महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य के परम आराध्य बृजजनों के प्रिय श्रीनाथजी के विग्रह की सुरक्षा करना उनके वंशज गोस्वामी बालकों का प्रथम कर्तव्य था। इस दृष्टि से श्री विट्ठलनाथजी के पौत्र श्री दामोदर जी एवं उनके काका श्री गोविन्द जी, श्री बालकृष्ण जी एवं श्री वल्लभजी ने श्रीनाथजी के विग्रह को लेकर प्रभु आज्ञा से ब्रज छोड़ देना ही उचित समझा और समस्त धन इत्यादि को वहीं छोड कर एक मात्र श्रीनाथजी को लेकर वि.स. 1726 आश्विन शुक्ल 15 शुक्रवार की रात्रि के पिछले पहर रथ में पधराकर ब्रज से प्रस्थान किया। यह तिथि ज्योतिष गणना से ठीक सिद्ध हुई। श्रीनाथजी का स्वरूप बृज में 177 वर्ष तक रहा था। श्रीनाथजी अपने प्राकट्य संवत 1549 से लेकर सं. 1726 तक बृज में सेवा स्वीकारते रहे। वार्ता साहित्य मे लिखा है, श्रीनाथजी जाने के पश्चात औरंगजेब की सेना मन्दिर को नष्ट करने के लिए गिरिराज पर्वत पर चढ़ रही थी, उसी समय मन्दिर की रक्षा के लिए कुछ बृजवासी सेवक तैनात थे। उन्होंने वीरतापूर्वक आक्रमणकारियों का सामना किया किन्तु वे सब मारे गए। उस वक्त मन्दिर के दो जलधारियों ने जिस वीरता का परिचय दिया था उसका सांप्रदायिक ढंग से वर्णन वार्ता में हुआ है। कहते हैं कि आक्रमणकारियों ने मन्दिर को नष्ट कर वहां एक मस्जिद बनवाई थी। अत्याचारों के कारण श्रीनाथजी को लेकर मेवाड़ की ओर प्रस्थान करना पडा।

सिहाड़ बना नाथद्वारा


        श्रीजी के मेवाड़ पधारने की भविष्यवाणी श्री गुसाईं विट्ठलनाथजी ने द्वारिका यात्रा जाते समय मार्ग में वीरभूमि मेवाड़ के सिहाड़ नामक स्थान को देखकर अपने शिष्य बाबा हरिवंश के सामने कर दी थी। भाविष्यवाणी के अनुसार कोई एक काल बाद श्रीनाथजी बिराजेंगे। उधर गोवर्धन से श्रीनाथजी के विग्रह को लेकर रथ के साथ सभी आगरा की ओर चल पड़े। बूढ़े बाबा महादेव आगे प्रकाश करते हुए चल रहे थे। फिर आगरा हवेली में अज्ञात रूप से पहुंचे। यहां से कार्तिक शुक्ला 2 को पुनः लक्ष्यविहीन यात्रा पर चल पड़े। श्रीनाथजी को गिरिराज के मन्दिर से पधराकर सिहाड़ के मन्दिर में बिराजमान करने तक दो वर्ष चार माह सात दिन का समय लगा था। श्रीनाथजी के नाम के कारण ही मेवाड़ का वह अप्रसिद्ध सिहाड़ ग्राम अब श्रीनाथद्वारा नाम से भारतवर्ष और दुनियाभर में सुविख्यात है।

श्रीवल्लभाचार्य ने बनाया श्रीजी मंदिर

        उल्लेख है कि वि.स. 1549 (ई.स. 1593) फाल्गुन शुक्ल एकादशी गुरूवार के दिन श्री गोवर्धननाथजी ने महाप्रभु श्री वल्लभाचार्यजी को झारखण्ड में आज्ञा दी कि हमारा प्राकट्य गोवर्धन की कन्दरा में हुआ है। पहले वामभुजा का प्राकट्य हुआ था और फिर मुखारविन्द का। अब हमारी इच्छा पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य करने की है। इसलिए आप शीघ्र ब्रज आकर हमारी सेवा का प्रकार प्रकट करें। यह आज्ञा सुनकर महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने अपनी यात्रा की दिशा बदली और ब्रज में गोवर्धन के पास आन्योर ग्राम पधारे वहां आप श्री सद्दू पाण्डे के घर के आगे चबूतरे पर विराजे। श्री आचार्यजी महाप्रभु के अलौकिक तेज से प्रभावित होकर सद्दू पाण्डे सपरिवार आपश्री के सेवक बने। फिर सद्दू पाण्डे ने श्रीनाथजी के प्राकट्य की सम्पूर्ण कथा सुनाई। तब श्री महाप्रभुजी अपने सेवकों और ब्रजवासियों के साथ श्री गिरिराजजी पर श्रीनाथजी के दर्शनों के लिए निकल पड़े।

घासफूस के मंदिर में पधराए ठाकुरजी

श्रीनाथद्वारा में जन्माष्टमी के अवसर पर तोप छोड़ने की परम्परा हैै।

        सर्वप्रथम आपने हरिदासवर्य गिरिराजजी को प्रभु का स्वरूप मानकर दण्डवत प्रणाम किया और उनसे आज्ञा लेकर गिरिराजजी पर धीरे-धीरे चढ़ना आरम्भ किया। जब दूर से ही सद्दू पाण्डे ने श्रीनाथजी के प्राकट्य का स्थल बतलाया तब महाप्रभुजी के नेत्रों से हर्ष के अश्रुओं की धारा बह निकली। उन्हे ऐसा लग रहा था कि वर्षों से प्रभु के विरह का जो ताप था, वह अब दूर हो रहा है। उनकी पर्वत पर चढ़ने की गति बढ गई। कुछ पल चलने पर उन्हें सामने से मोर मुकुट पीताम्बरधारी प्रभु श्रीनाथजी आगे बढ़ते दिखते हैं। तब श्रीमद् वल्लभाचार्य प्रभु के निकट दौड़ते हुए पहुंच गये। आज श्री वल्लभाचार्य को भूमंडल पर अपने सर्वस्व मिल गये थे। श्री ठाकुरजी और श्री आचार्यजी दोनो ही परस्पर अलिंगन में बंध गये। इस अलौकिक क्षण को देखकर ब्रजवासी भी धन्य हो गए। आचार्य श्री महाप्रभु श्रीनाथजी के दर्शन और आलिंगन पाकर हर्ष-विभोर हो गए। तभी श्रीनाथजी ने आज्ञा दी कि श्री वल्लभ यहां हमारा मन्दिर सिद्ध करके उसमें हमें पधराओं और हमारी सेवा का प्रकार आरम्भ करवाओ। श्री महाप्रभु जी ने हाथ जोड़कर विनती स्वीकारी और अविलम्ब एक छोटा-सा घास-फूस का मन्दिर सिद्ध करवाकर ठाकुरजी श्री गोवर्धननाथजी को उसमें पधराया तथा श्री ठाकुरजी को मोरचन्द्रिका युक्त मुकुट एवं गुंजामला का श्रृंगार किया। बाद में श्री महाप्रभुजी की अनुमति से पूर्णमल्ल खत्री ने श्रीनाथजी का विशाल मन्दिर सिद्ध किया।

श्रीनाथ जी का इतिहास

        गर्ग संहिता में उल्लेख है कि गोलोक धाम में मणिरत्नों से सुशोभित श्रीगोवर्धन है। वहां गिरिराज की कंदरा में श्री ठाकुरजी गोवर्धनाथजी, श्रीस्वामिनीजी और ब्रज भक्तों के साथ रसमयी लीला करते हैं। वह नित्य लीला है। वहां आचार्य महाप्रभु श्री वल्लभाधीश श्री ठाकुरजी की सदा सर्वदा सेवा करते हैं। एक बार श्री ठाकुरजी ने श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु को जीवों के उद्धार के लिए धरती पर प्रकट होने की आज्ञा दी। विक्रम संवत् 1466 ई. स. 1409 की श्रावण कृष्ण तीज रविवार के दिन सूर्योदय के समय श्री गोवर्धननाथ का प्राकट्य गिरिराज गोवर्धन पर हुआ। यह वही स्वरूप था जिस स्वरूप से इन्द्र का मान-मर्दन करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने बृजवासियों की पूजा स्वीकार की और अन्नकूट की सामग्री आरोगी थी। श्री गोवर्धननाथजी के सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य एक साथ नहीं हुआ था पहले वाम भुजा का प्राकट्य हुआ, फिर मुखारविन्द का और बाद में सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ।

बंगाली ब्राह्मणों को सौंपी सेवा

        सर्वप्रथम श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी) सं. 1466 के दिन जब एक ब्रजवासी अपनी खोई हुई गाय को खोजने गोवर्धन पर्वत पर गया तब उसे श्री गोवर्द्धनाथजी की ऊपर उठी हुई वाम भुजा के दर्शन हुए। उसने अन्य बृजवासियों को बुलाकर ऊर्ध्व वाम भुजा के दर्शन करवाये। तब एक वृद्ध बृजवासी ने कहा की भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को बायें हाथ की अंगुली पर उठाकर इन्द्र के कोप से ब्रजवासियों, ब्रज की गायों और ब्रज की रक्षा की थी। तब ब्रजवासियों ने उनकी वाम भुजा का पूजन किया था। इसके बाद लगभग 69 वर्षों तक बृजवासी इस ऊर्ध्व भुजा को दूध से स्नान करवाते, पूजा करते, भोग धरते और मान्यता करते थे। प्रतिवर्ष नागपंचमी के दिन यहां मेला लगने लगा था। तृतीया को श्रीनाथजी नये मन्दिर पधारे तथा पाटोत्सव हुआ। तब माधवेन्द्र पुरी तथा कुछ बंगाली ब्राह्मणों को श्रीनाथजी की सेवा का दायित्व सौंपा गया।

गुसाईंजी ने शुरू की नई सेवा व्यवस्था

        अष्टछाप कवियों को संगीत सेवा सौंपी गई तथा कृष्णदास को अधिकारी बनाया गया। बाद में श्रीमद् वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र श्री गुसाईंजी विट्ठलनाथजी ने बंगाली ब्राह्मणों को सेवा से हटाकर नई व्यवस्था शुरु की। जो आज तक चल रही है। जब श्रीनाथजी बृज से आगरा, कोटा, बूंदी, किशनगढ़, पुष्कर, जोधपुर, उदयपुर होते हुए सर्वप्रथम घसीयार बिराजे। बाद में श्रीनाथद्वारा में पधारे। तब वि.स. 1728 फाल्गुन कृष्ण सप्तमी 20 फरवरी सन् 1672 ई. शनिवार को श्रीनाथजी वर्तमान निज मन्दिर में पधारे और धूमधाम से पाटोत्सव हुआ। तब सिहाड़ ग्राम का नाम श्रीनाथद्वारा प्रसिद्ध हुआ। नामकरण अभी तक श्रीनाथजी को बृजवासी देवदमन के नाम से जानते है। गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड में श्री गोवर्धननाथ के देवदमन और श्रीनाथजी दोनो ही के नामों का उल्लेख है। ‘श्री‘ शब्द लक्ष्मीवाचक और राधापरक है। राधाजी भगवान की आह्लादिनी आनंददायिनी शक्ति है और ‘नाथ‘ शब्द तो स्वामिवाचक है ही। भावुक भक्त बडे ही लाड़ से ‘श्रीनाथजी‘ को श्रीजी या ‘श्रीजी बाबा‘ भी कहते हैं।

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