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राम मंदिर बाबरी मस्जिद विवाद का इतिहास, टाइमलाइन और महत्वपूर्ण तथ्य


अयोध्या में राम मंदिर को निर्माण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है और दोनों पक्ष इस बात का दावा कर रहे हैं कि उनके प्रमाणों के आधार पर राम मंदिर पर फैसला उनके पक्ष में ही आएगा. यह तो भविष्य के गर्भ में ही छुपा हुआ है कि अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला किस के लिए फायदे का साबित होता है. 

बाबरी मस्जिद और राम मंदिर विवाद आधुनिक भारतीय राजनीति के सबसे ज्वलंत मसलों में से एक है. इस विवाद की शुरूआत के बीज मध्यकाल में तब रोपित हुए जब बाबर भारत आया. इसके बाद की कहानी इस तरह है.

बाबरी मस्जिद का इतिहास-ayodhya ram mandir babri masjid dispute history

बाबरी मस्जिद का इतिहास पंद्रहवीं शताब्दी से शुरू होता है जब बाबर ने पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हरा कर दिल्ली के सल्तनत पर कब्जा कर लिया. उसी दौरान अयोध्या में बाबर के ही एक अमीर मीर बांकी ने 1528 में राम मंदिर पर मस्जिद तामीर करवा दी. यहां मंदिर होने के सैकड़ों प्रमाण बाद में खोज निकाले गए. 

राम मंदिर के लिए संघर्ष की शुरूआत

राम जन्म भूमि यानी अयोध्या में राम मंदिर को लेकर हिंदु धर्मावलम्बियों के संघर्ष की शुरूआत के प्रारंभिक मामले 1857 से ही सामने आने लगते हैं. 1857 की क्रांति के समय ही जब लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह थे यह विवाद अपने चरम पर पहुंचा लेकिन ब्रिटिश शासकों ने इसको हल करने में कोई रूचि नहीं दिखाई और क्रांति के असफल होने के साथ ही यह मामला भी दब गया.

किसने बनवाया था अयोध्या में राम मंदिर? Who built Ram Mandir in Ayodhya?

राम मंदिर को लेकर अक्सर यह प्रश्न उठता है कि आखिर अयोध्या में इस राममंदिर का निर्माण किस भारतीय नरेश ने करवाया था. इस प्रश्न का उत्तर ब्रज गोपाल राय की पुस्तक ‘मंदिर वहीं बनाएंगे मगर क्यों’ में मिलता है. इस पुस्तक में लेखक बताता है कि भारत में ज्यादातर प्राचीन शिव, राम और विष्णु के मंदिर विक्रमादित्य ने ही बनवाए जिसका शासन काल 375 से 413 ईस्वी तक रहा. गुप्तकाल को भी भारत का स्वर्णकाल भी कहा जाता है, इस समय के ही सोने के सिक्के सर्वाधिक पाए जाते हैं. इतिहास में इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि विक्रमादित्य के वंशज स्कन्दगुप्त ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया. स्कन्दगुप्त का शासनकाल 455 से 480 ईस्वी तक रहा.

रामजन्म भूमि होने का दावा Where Ram Born?

अयोध्या का अर्थ है, जहां युद्ध नहीं है या युद्ध से रक्षित भूमि. इस जगह को यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि यहां महापराक्रमी राजा राम और उनके पूर्वजों ने शासन किया और उनसे किसी ने युद्ध करने का साहस नहीं दिखाया. वाल्मीकि रामायण से लेकर 15वीं शताब्दी में रचित रामचरित मानस तक अयोध्या को ही राम की जन्मभूमि माना गया है. इस सम्बन्ध में विभिन्न रामायणों में एक जैसा ही वर्णन मिलता है. इसी को आधार बनाकर हिंदु धर्माचार्य अयोध्या में राम मंदिर बनाने की वकालत करते हैं. उनका मानना है कि उनके ईष्ट के जन्म स्थान पर उनका आराधना स्थल होना आवश्यक है.

राम मंदिर विवाद की शुरूआत Start a Dispute for Ram mandir

राम मंदिर के कानूनी विवाद की शुरूआत 1885 से शुरू होती है जब अयोध्या के ही एक महंत रघुवर दास ने 19 जनवरी 1885 को फैजाबाद के उप न्यायधीश की अदालत में राम चबूतरा पर मंदिर बनाने की आज्ञा मांगी. तत्कालीन उप न्यायधीश ने उनकी मांग को खारिज कर दिया. इसके बाद रघुवर दास ने जिला न्यायालय में इस फैसले के खिलाफ अपील की. जिला न्यायालय ने भी उनकी इस अपील को खारिज कर दिया.

इस अदालती फैसले से हिंदु समुदाय नाराज हो गया. इसके बाद इस मामले में छुट-पुट आवाजें उठती रही लेकिन भारत की आजादी की लड़ाई के शोर में उन आवाजों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया. 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो साम्प्रदायिक आधार पर उसका विभाजन हुआ. इस विभाजन ने हिंदु मुस्लिमों के बीच की दरार को और बढ़ा दिया और अयोध्या का राम मंदिर का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में आ गया था.

22 दिसम्बर की रात को एक बड़ी घटना घटी और कुछ अज्ञात लोगों ने राम चबूतरे पर रखी मूर्तियों को मस्जिद के अंदर ले जाकर रख दिया. इससे विवाद खड़ा हो गया. भारत सरकार ने इस इमारत को विवादित मानते हुए इसे अपने कब्जे में लिया और रिसिवर नियुक्त कर दिया गया. इसके बाद पूरे परिसर को विवादित घोषित करते हुए इस पर सरकारी ताला लगा दिया गया.

मस्जिद से मूर्तियों को हटाने की कवायद शुरू ही हुई थी कि 16 जनवरी 1950 को फैजाबाद के न्यायालय में गोपाल सिंह विशारद नामक व्यक्ति ने मूर्तियों को वहां हटाने से रोकने और यथास्थिति बनाये रखने अनुरोध किया. न्यायालय ने इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया. मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में गया और उच्च न्यायालय ने भी निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा. 


इसके बाद 5 दिसम्बर 1950 को महंत परमहंस रामचंद्र दास ने एक मुकदमा दायर कर रामलला और मूर्तियों की पूजा की इजाजत मांगी. अदालत ने इजाजत देने से इंकार कर दिया. इस मामले में एक बड़ा मोड़ तब आया जब 12 दिसम्बर 1959 को निर्मोही अखाड़ा इस मामले में पक्षकार बन गया. निर्मोही अखाड़े ने सरकार के रिसिवर पर ही मुकदमा दर्ज करवा दिया और मांग की विवादित स्थल का प्रबंधन उसके हाथों में सौंप दिया जाए. 

18 दिसम्बर 1961 को सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड भी मुकदमा दायर कर विवादित भूमि के पक्षकार के तौर पर शामिल हो गया. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की मांग थी कि मस्जिद और उसके आस-पास की पूरी जगह का कब्जा वक्फ संपति के तौर पर उसे दिलवाया जाए.

21 जनवरी 1986 को गोपाल सिंह विशारद के वकील उमेश चंद्र पांडेय ने अदालत में अर्जी देकर अनुरोध किया कि उनके मुवक्किल गोपाल सिंह विशारद की मृत्यु हो चुकी है, ऐसे में ताले पर लगा स्टे स्वतः खारिज माना जाए और ताले खोलने के आदेश दे दिए जाएं. 1 फरवरी 1986 को जिला न्यायधीश के.एम. पाण्डेय ने ताला खोलने के आदेश दे दिए. इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ बेंच में अपील की गई. ये अपीले खारिज कर दी गई.

जनवरी 1989 में धर्मसंसद की तीसरी बैठक बुलाई गई. राम मंदिर का निर्माण इस संसद का केन्द्रीय मुद्दा था. संसद ने 9 नवम्बर 1989 को शिलान्यास की तारीख तय की. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की जिसे खारिज कर दिया गया. 27 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने शिलान्यास की अनुमति दे दी. 17 नवम्बर 1989 को विधिवत शिलान्यास किया गया. सरकार ने मंदिर निर्माण के लिए आस-पास की 54 एकड़ भूमि अधिगृहित कर ली.

10 जुलाई 1989 को सर्वोच्च न्यायालय ने राम मंदिर निर्माण के मामले में चल रहे 4 मुकद्मों की सुनवाई का काम इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच को सौंप दिया.1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की अगुआई में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी. कल्याण सिंह सरकार ने विवादित स्थल का कुछ हिस्सा दर्शनार्थियों के लिए खोल दिया और 43 एकड़ भूमि रामजन्म भूमि न्याास को पट्टे पर दे दिया. इसके खिलाफ याचिका दायर की गई जिसे न्यायालय ने ये कहते हुए कि खारिज कर दिया कि राज्य सरकार को ऐसा करने का अधिकार है.

1992 राम जन्मभूमि विवाद का बड़ा निर्णायक वर्ष साबित हुआ. भाजपा के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने मंदिर वहीं बनाएंगे के नारे के साथ रथ यात्रा निकाली और देश भर से कारसेवक मंदिर निर्माण में हाथ बंटाने के लिए अयोध्या में इकट्ठे हुए. 6 दिसम्बर 1992 को मस्जिद का विवादित ढांचा ढहा दिया गया. पूरे देश में साम्प्रादायिक दंगे शुरू हो गए. राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. 

केन्द्र की नरसिंह राव सरकार ने संसद में भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1993 पारित किया और 7 जनवरी 1993 को विवादित स्थल और आस-पास की 67 एकड़ जमीन को अधिग्रहित कर लिया. राष्ट्रपति ने पूरा मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज दिया. 24 अक्टूबर 1994 को सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के कदम को सही ठहराया और मामले की सुनवाई के अधिकार इलाहाबाद हाई कोर्ट को दे दिया.

सर्वोच्च अदालत ने इसी दौरान यह बात भी खारिज कर दी कि मस्जिद हमेशा मस्जिद ही रहती है और राम जन्म भूमि न्यास की 43 एकड़ भूमि को विवादित मानने से भी इंकार कर दिया. विहिप ने जब 2002 में शिलादान कार्यक्रम आयोजित किया तो एक पक्षकार असलम सर्वोच्च न्यायालय चला गया और न्यायालय ने संपूर्ण 67 एकड़ जमीन पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दे दिया.

बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में फौजदारी मुकदमे दर्ज किए गए और 49 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया. इन लोगों में लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती के नाम भी शामिल थे. कल्याण सिंह को भी विवादित परिसर में राम चबूतरा बनाने देने की इजाजत देने की वजह से एक दिन की सजा मिली. 

लिब्रहान आयोग librahan ayog in hindi

बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले की जांच करने के लिए केन्द्र सरकार ने एक जांच आयोग बनाया. यह आयोग तीन बिंदुओं की जांच करने वाला था जिसमें मस्जिद गिरने के कारण और इसमें राज्य सरकार तथा मशीनरी की भूमिका को देखना था. साथ ही पत्रकारों पर हुए हमलों की जांच भी इस आयोग को करनी थी.

राममंदिर बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सुनवाई

6 दिसम्बर 1992 को हुई घटना के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया और उच्च न्यायालय को यह मामला सुनने के लिए कहा. इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इसके लिए तीन जजों की पीठ बनाई गई, जिसने इस मामले को सुनना शुरू किया. 1996 से इस विवाद में गवाहियां दर्ज की गई. मुस्लिम पक्ष ने इस बात की 30 गवाहियां पेश की जो यह कह रही थी कि मीर बांकी ने जिस जगह पर मस्जिद बनाई वह एक खाली जगह थी और मुस्लिम वहां लगातार नमाज अता कर रहे थे. हिंदु पक्ष ने 50 गवाहियां करवाई जो यह बताती थी कि बाबरी मस्जिद का निर्माण हिंदू मंदिर के ऊपर किया गया था.

बाबरी मस्जिद खुदाई पर एएसआई की रिपोर्ट ASI Report on Babri Masjid 

इस मसले की जांच करवाने के लिए इलाहबाद उच्च न्यायालय ने आर्कियोलाॅजिकल सर्वे आॅफ इंडिया को विवादित परिसर में मार्च 2003 में खुदाई कर तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करने के लिए कहा. 22 अगस्त 2003 को एएसआई ने अपनी रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत की. 574 पन्नों की इस रिपोर्ट के प्रमुख तथ्य इस प्रकार थे-
विवादित भूमि पर 10वीं शताब्दी के हिंदु मंदिर के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं.
काले स्तम्भ प्राप्त हुए हैं, जिन पर यक्ष की आकृति उत्कीर्ण की गई है.
संस्कृत में पवित्र वाक्य भी पत्थरों पर उत्कीर्ण किए गए हैं।
दो खंभों पर कमल और मोर के उत्कीर्ण चित्र भी प्राप्त हुए हैं।
रिपोर्ट में खुदाई के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि यहां उत्तरी काले पाॅलिश वाले बर्तन इस बात का इशारा कर रहे हैं कि यह साइट 100 ईसापूर्व से 300 ईसापूर्व के बीच बनी है.
रिपोर्ट में बताया गया कि जमीन के भीतर भवन के 184 भग्नावेश मिले हैं.
भग्नावेश उत्तर भारतीय शैली के मंदिरों की ओर ही इशारा कर रहे थे.
अवशेषों में सजावटी ईंटे, दैवीय युगल, आमलक, ईंटो से बना गोलाकार मंदिर, जल निकास के परनाला आदि प्राप्त हुए.
अवशेषों की कार्बन डेटिंग में उम्र 13 वी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले की बताई गई.
यहां कुषाण, शुंग और गुप्त काल तक के अवशेष प्राप्त हुए हैं.
खुदाई में 50 खंभों के आधार मिले हैं. 
मस्जिद को स्पष्ट तौर पर 16वीं शताब्दी में निर्मित बताया गया जो इस पुरातन ढांचे पर बनाई गई थी.
रिपोर्ट में एक 15 गुना 15 मीटर का एक उठा हुआ चबूतरा भी मिला जिसमें एक गोलाकार गढ्ढा है जो किसी देव प्रतिमा को स्थापित करने के लिए बनाया गया लगता है.

एएसआई की रिपोर्ट पर विवाद Dispute On ASI Report on Ram Mandir

एएसआई की रिपोर्ट पर आते ही विवाद हो गया. कई पुरातत्ववेत्ताओं ने इसे खामियों से भरा हुआ बताया. इसके अलावा बाबरी मस्जिद पक्षकारों द्वारा खुदाई को रूकवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर की गई जिन्हें कोर्ट ने खारिज कर दिया. 

बाबरी मस्जिद विवाद पर हाईकोर्ट का फैसला High Court decision On Ram Mandir Babri Masjid Dispute 

26 जुलाई 2010 को इस मामले में दोनों पक्षो से सभी गवाह और सबूत अदालत के सामने प्रस्तुत होने के बाद सुनाई पूरी कर ली गई. 

30 सितम्बर 2010 को जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एस यू खान और जस्टिस डी वी शर्मा की बेंच ने अपना फैसला सुनाया. फैसले के लिए एएसआई की रिपोर्ट को ही आधार माना गया. इस फैसले के अनुसार 2.77 एकड़ वाली विवादित भूमि के तीन बराबर हिस्से किए गए. राम मूर्ति वाला हिस्सा जहा राम लला विराजमान थे, स्वयं राम लला को दे दिया गया. राम चबूतरा और सीता रसोई वाला हिस्सा निर्मोही अखाड़े के हिस्से आया. बाकी बच्चा हुआ तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया गया. 

दोनों पक्ष इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए. 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पक्षकार बंटवारे को लेकर जमीन के टाइटल का मामला लेकर हाई कोर्ट गए थे ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई शुरू कर दी. जो अभी तक जारी है.

राम मंदिर बाबरी मस्जिद विवाद में बातचीत से सुलह की कोशिशें

बाबरी मस्जिद और राम मंदिर चूंकि धार्मिक मामला है इसलिए कई बार इस मसले को बातचीत के रास्ते सुलझाने की कोशिश की गई. ऐसी बड़ी कोशि शें 9 बार हुई और हर बार असफल रही.

पहली कोशिश

1985 में इस सम्बन्ध में पहली कोशिश हुई. समस्या को सुलझाने के लिए बाबरी मस्जिद रामजन्म भूमि समस्या समाधान समिति बनाई गई. समिति ने इसका हल निकाला कि मस्जिद को विवादित स्थान से हटाकर दूसरी जगह स्थापित कर दिया जाए. इसके लिए देश भर के मुस्लिम विद्वानों से सहमति ली गई. सूडान, पाकिस्तान, मिश्र के उलेमाओं के साथ ही ईरान और इराक के विद्वानों ने भी हामी भर दी. लेकिन जब लोगों के पता चला तो आमजन ने कठोर प्रतिक्रिया की. यह कोशिश नाकाम रही. 

दूसरी कोशिश 

1986 में राम जन्म भूमि विवाद को सुलझाने की दूसरी कोशिश की गई. यह कोशिश मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की पहल पर की गई. इसके लिए अयोध्या गौरव समिति नाम का ट्रस्ट बनाया गया. महन्त नृत्य गोपाल दास को इसका अध्यक्ष बनाया गया. अयोध्या से लेकर दिल्ली तक विभिन्न हिन्दू और मुसलिम संगठनों तथा देश के प्रमुख नेताओं को इससे जोड़ा गया. हल के तौर पर यह विचार सामने आया कि विवादित मस्जिद को 11 फिट दिवार से घेर दिया जाएगा और राम मंदिर की शुरूआत राम चबूतरे से की जायेगी. हल सामने आते ही इस पर राजनीति शुरू हो गई. और सुलह की यह कोशिश भी असफल रही.

तीसरी कोशिश

20 अक्टूबर, 1990 को इस विवाद को सुलझाने की तीसरी कोशिश की गई. इस सुलाह की कोशिश में पूर्व उपराष्ट्रपति कृष्णकांत, बिहार के पूर्व राज्यपाल यूनुस सलीम, स्वामी चिन्मयानंद और अब्दुल करीम पारिख ने अग्रणी भूमिका निभाई. विवाद सुलझाने के लिए एक बैठक का आयोजन किया गया. हिन्दू पक्ष से 14 और मुस्लिम पक्ष से 12 विद्वानों ने हिस्सा लिया. बैठक में एक समिति का गठन किया गया जो समस्या का हल करने का काम करती. लेकिन यह कोशिश भी खटाई में पड़ गई. 

चौथी कोशिश

1 दिसंबर, 1990 को चैथी कोशिश की गई. इस कोशिश में विश्व हिन्दू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के साथ ही गृह राज्य मंत्री तथा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली और राजस्थान के मुख्यमंत्री भी शामिल थे. यह कोशिश असफल हुई क्योंकि बाबरी मस्जिद कमेटी ने यह मानने से इंकार कर दिया कि मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को गिराकर किया गया है. 

पांचवी कोशिश

12 जनवरी, 1991 को शिया कांफ्रेस में इस समस्या का समाधान खोजने का प्रयास किया गया. इस सम्मेलन में 10 बडे़ मुस्लिम नेताओं और 9 हिन्दू नेताओं ने हिस्सा लिया. सम्मेलन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा. लेकिन सम्मेलन में सरकार से अपिल की गई कि इस मसले का जल्दी से जल्दी अदालती समाधान निकाला जाए. 

छठी कोशिश

बाबरी मस्जिद के गिराये जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने यहां रामनंद ट्रस्ट बनाकर मंदिर मस्जिद पुस्तकालय संग्रहालय बनाने की बात की. उन्होंने मस्जिद ट्रस्ट बनाने की भी बात की लेकिन इस समाधान के लिए कोई पक्ष तैयार नहीं हुआ. 

सातवीं व आठवीं कोशिश

2002 और 2003 में ये प्रयास कान्ची कामकोटि के शंकराचार्य द्वारा किए गए. इसके लिए उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड से बातचीत की. इस बातचीत का कोई खास हल नहीं निकल पाया. मामले के पक्षकार हाशिम अंसारी समेत आधा दर्जन पक्षकारों ने प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखी और शंकराचार्य ने बातचीत को ठुकरा दिया.

नवीं कोशिश

यह कोशिश 2003 में मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की ओर से की गई. लेकिन हिन्दू पक्ष के पक्षकार मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड से वार्ता के लिए नहीं आये यह कोशिश भी बेकार गई.

अयोध्या विवाद के प्रमुख पक्षकार Key Persons of Ram Mandir Babri Masjid Case

महन्त परमहंस रामचन्द्र दास

महन्त परमहंस रामचन्द्र दास राम मंदिर निर्माण के पहले पक्षकारों में से एक थे. उन्होंने ने ही पहले पहल रामलला विराजमान की पूजा की अनुमति अदालत से मांगी थी. वे दिगम्बर अखाडे़ के महन्त थे. राम मंदिर आंदोलन की वजह से भगवदाचार्य जी महाराज ने उन्हें प्रतिवाद भयंकर की उपाधि दी. 31 जुलाई, 2003 को महन्त जी का देवलोक गमन हो गया. 

निर्माेही अखाड़ा

निर्मोही अखाड़ा राम मंदिर मुकदमे में दूसरा प्रमुख पक्षकार है. निर्मोही अखाड़े में 1959 में विवादित जमीन का प्रबंधन अखाडे़ को सौंपने को कहा और रिसीवर हटाने का अनुरोध किया. निर्मोही अखाड़ा वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख अखाड़ा है. महन्त भास्कर दास इसके सरपंच है. इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में निर्माेही अखाडे़ को एक तिहाई जमीन का मालिकाना हक दिया है. 

अब्दुल मन्नान

अब्दुल मन्नान मुस्लिम पक्ष के प्रमुख पक्षकारों में एक थे. वे पेशे से एक वकील थे जिन्होंने राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट तक पैरवी की. 30 जुलाई, 2006 को इनका इंतकाल हो गया. 

हाशिम अंसारी

हाशिम अंसारी राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद के मुकदमे के सबसे पुराने पक्षकार थे. उन्होंने 1949 से बाबरी मस्जिद का केस लड़ा. 1952 में विवादित मस्जिद से अजान देने की वजह से कोर्ट ने उन्हें 2 साल की सजा भी सुनाई. 20 जुलाई, 2016 को दिल का दौरा पड़ने से 95 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई. 

सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड

सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड को वक्फ एक्ट 1954 और वक्फ एक्ट 1995 की धारा 13 और 14 के तहत गठित किया गया है जो राज्य की मुस्लिम सार्वजनिक सम्पतियों की देख-रेख और प्रबंधन का काम करती है. यह एक स्वायतशासी संस्था होती है जिसमें नियमानुसार सदस्य चुने जाते हैं. उत्तरप्रदेश का सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड भी ऐसी ही संस्था है जो राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद के मुकदमे में प्रमुख पक्षकार है. 

राम मंदिर केस की टाइमलाइन Timeline of Ram Mandir Babri Masjid Case

1528: मीर बांकी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण किया.
1857 नवाब वाजिद अली शाह के समय पहली बार राम जन्म भूमि पर मंदिर निर्माण की बात का विवाद उठा.
1885: अयोध्या के ही एक महंत रघुवर दास ने अदालत में राम चबूतरा पर मंदिर बनाने की आज्ञा मांगी. 
1947: कुछ अज्ञात लोगों ने राम चबूतरे पर रखी मूर्तियों को मस्जिद के अंदर ले जाकर रख दिया. 
1950: फैजाबाद न्यायालय में गोपाल सिंह विशारद ने मूर्तियों को वहां हटाने से रोकने और यथास्थिति बनाये रखने अनुरोध किया. महंत परमहंस रामचंद्र दास ने एक मुकदमा दायर कर रामलला और मूर्तियों की पूजा की इजाजत मांगी. 
1959: निर्मोही अखाड़ा इस मामले में पक्षकार बन गया. निर्मोही अखाड़े ने विवादित स्थल का प्रबंधन उसके हाथों में सौंपने की बात कही. 
1961: सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड भी पक्षकार के तौर पर शामिल हो गया. 
1986: जिला न्यायधीश के.एम. पाण्डेय ने ताला खोलने के आदेश दे दिए. 
1989: धर्मसंसद की तीसरी बैठक बुलाई गई. 17 नवम्बर 1989 को विधिवत शिलान्यास किया गया. सरकार ने मंदिर निर्माण के लिए आस-पास की 54 एकड़ भूमि अधिगृहित कर ली.
1991: उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने विवादित स्थल का कुछ हिस्सा दर्शनार्थियों के लिए खोल दिया और 43 एकड़ भूमि रामजन्म भूमि न्याास को पट्टे पर दे दिया.
1992: लाल कृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली और 6 दिसम्बर 1992 को मस्जिद का विवादित ढांचा ढहा दिया गया. राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. 
1993: नरसिंह राव सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1993 पारित किया और 67 एकड़ जमीन को अधिग्रहित कर लिया. 
1994: सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के कदम को सही ठहराया और मामले की सुनवाई के अधिकार इलाहाबाद हाई कोर्ट को दे दिया.
2002: विश्व हिन्दु परिषद द्वारा शिलादान कार्यक्रम आयोजित किया गया. 
2003: एएसआई ने विवादित स्थल पर खुदाई की और अपनी रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत की. 
2009: विवादित ढांचे को ढहाने के मामले में जांच के लिए लिब्रहान आयोग गठित किया गया.
2010: 30 सितम्बर 2010 को जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एस यू खान और जस्टिस डी वी शर्मा की बेंच ने अपना फैसला सुनाया. 
2011: सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर स्टे दे दिया.
2017: सर्वोच्च न्यायालय ने इस विवाद की सुनवाई शुरू की.


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